वट सावित्री व्रत पूजा विधि महिलाएं सुबह उठकर स्नान कर नए वस्त्र पहनें और सोलह श्रृंगार करें ।
अब निर्जला व्रत का संकल्प लें और घर के मंदिर में पूजन करें।
अब 24 बरगद फल (आटे या गुड़ के) और 24 पूरियां अपने आंचल में रखकर वट वृक्ष पूजन के लिए जाएं।
अब 12 पूरियां और 12 बरगद फल वट वृक्ष पर चढ़ा दें।
इसके बाद वट वृक्ष पर एक लोट जल चढ़ाएं।
फिर वट वक्ष को हल्दी, रोली और अक्षत लगाएं।
अब फल और मिठाई अर्पित करें।
इसके बाद धूप-दीप से पूजन करें।
अब वट वृक्ष में कच्चे सूत को लपटते हुए 12 बार परिक्रमा करें।
हर परिक्रमा पर एक भीगा हुआ चना चढ़ाते जाएं।
परिक्रमा पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनें।
अब 12 कच्चे धागे वाली एक माला वृक्ष पर चढ़ाएं और दूसरी खुद पहन लें।
अब 6 बार माला को वृक्ष से बदलें और अंत में एक माला वृक्ष को चढ़ाएं और एक अपने गले मेंपहन लें।
पूजा खत्म होने के बाद घर आकर पति को बांस का पंख झलें और उन्हें पानी पिलाएं।
अब 11 चने और वट वृक्ष की लाल रंग की कली को पानी से निगलकर अपना व्रत तोड़ें।
वट सावित्री व्रत की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी. उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए अनेक वर्षों तक तप किया जिससे प्रसन्न हो देवी सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें पुत्री का वरदान दिया. फलस्वरूप राजा को पुत्री प्राप्त हुई और उस कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया.
सावित्री सभी गुणों से संपन्न कन्या थी, जिसके लिए योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुःखी रहने लगे. एक बार उन्होंने पुत्री को स्वयं वर तलाशने भेजा. इस खोज में सावित्री एक वन में जा पहुंची जहां उसकी भेंट साल्व देश के राजा द्युमत्सेन से होती है. द्युमत्सेन उसी तपोवन में रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था. सावित्री ने उनके पुत्र सत्यवान को देखकर उन्हें पति के रूप में वरण किया.
इधर, यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे- आपकी कन्या ने वर खोजने में भारी भूल की है. सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी. नारद जी के वचन सुन राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो
गया. "वृथा न होहिं देव ऋषि बानी" ऎसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है. इसलिए अन्य कोई वर चुन लो.
इस पर सावित्री अपने पिता से कहती है कि पिताजी- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है. अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार कर चुकी हूं. इस बात को सुन दोनों का विधि-विधान के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया गया और सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रत हो गई. समय बदला, नारद का वचन सावित्री को दिन -प्रतिदिन अधीर करने लगा. उसने जब जाना कि पति की मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरू कर दिया. नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया. नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकड़ी काटने के लिए चला गया तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से अपने पति के साथ जंगल में चलने के लिए तैयार हो गई़.
सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने के लिये वृ्क्ष पर चढ़ गया. वृ्क्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के
सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी. वह व्याकुल हो गया और वृक्ष से नीचे उतर गया. सावित्री अपना भविष्य समझ गई तथा अपनी गोद का सिरहाना बनाकर अपने पति को लिटा लिया. उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ़ यमराज को आते देखा. धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी. पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और पतिपरायणता देख कर उसे वर मांगने के लिए कहा.
सावित्री बोली- "मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे है. उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें." यमराज ने कहा, "ऐसा ही होगा और अब तुम लौट जाओ." यमराज की बात सुनकर उसने कहा, "भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है. पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है." यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा. सावित्री बोली, "हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें." यमराज ने यह वर देकर कहा, "अच्छा अब तुम लौट जाओ परंतु वह न मानी."
यमराज ने कहा कि पति के प्राणों के अलावा जो भी मांगना है मांग लो और लौट जाओ. इस बार सावित्री ने अपने को सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान मांगा. यमराज ने तथास्तु कहा
और आगे चल दिए. सावित्री फिर भी उनके पीछे-पीछे चलती रही. उसके इस कृत से यमराज नाराज हो जाते हैं. यमराज को क्रोधित होते देख सावित्री उन्हें नमन करते हुए उन्हें कहती है, "आपने मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का आशीर्वाद तो दे दिया लेकिन बिना पति के मैं मां किस प्रकार से बन सकती हूं, इसलिये आप अपने तीसरे वरदान को पूरा करने के लिए अपना कहा पूरा करें."
सावित्री की पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राण को अपने पाश से मुक्त कर दिया. सावित्री सत्यवान के प्राण लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुंची और सत्यवान जीवित होकर उठ बैठे. दोनों हर्षित होकर अपनी राजधानी की ओर चल पडे. वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि उनके माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है. इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे.
मान्यता है कि वट सावित्री व्रत करने और इसकी कथा सुनने से उपासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो टल जाता है.
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