चैत्र मास की शुक्ल एकादशी को कामदा एकादशी कहा जाता है। पद्म पुराण के
अनुसार कामदा एकादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है। कामदा
एकादशी व्रत के प्रभाव से मनुष्य प्रेत योनि से मुक्ति पाता है। कामदा एकादशी उपवास करने से ब्राह्मण की
हत्या जैसे पाप से मुक्ति मिल जाती है।
कामदा एकादशी व्रत पूजन विधि - कामदा एकादशी के दिन सर्वप्रथम स्नान आादि से पवित्र होने के बाद संकल्प
करके भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए। विष्णु भगवान को फूल,फल,तिल,
दूध, पंचामृत आदि पदार्थ अर्पित करना चाहिए। पूरे दिन बिना पानी पिए (
निर्जल) विष्णु जी के नाम का जप एवं कीर्तन करते हुए यह व्रत पूरा करना चाहिए। मान्यता है कि इस प्रकार से जो व्यक्ति चैत्र शुक्ल पक्ष में कामदा
एकादशी का व्रत रखता है उसकी सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति विष्णु कृपा
से शीघ्र ही पूर्ण होती है। कामदा एकादशी व्रत करने से सभी प्रकार के पापों से शीघ्र ही मुक्ति मिल
जाती है।
कामदा एकादशी व्रत कथा -कामदा एकादशी व्रत के महत्व के सम्बन्ध में सबसे पहले राजा दिलीप को
वशिष्ठ मुनि ने बताया था। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डु पुत्र धर्मराज
युधिष्ठिर को बताया था। कथा के मुताबिक धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे
भगवन! मैं आपको कोटि-कोटि नमस्कार करता हूं। अब आप कृपा करके चैत्र शुक्ल
एकादशी का क्या महत्व है बताए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे धर्मराज!
यही प्रश्न एक समय राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठजी से किया था और जो समाधान
उन्होंने किया वो सब मैं आपको बताता हूँ। प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहां पर अनेक ऐश्वर्यों से
युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक
अप्सरा, किन्नर व गन्धर्व निवास करते थे। उनमें से एक जगह ललित और ललिता
नाम के पुरुष- स्त्री सुन्दर घर में निवास करते थे। उन दोनों में बहुत
प्रेम था। जब कभी दोनों एक दूसरे से अलग हो जाते थे तो दोनों एक दूसरे के
लिए व्याकुल हो जाते थे। पुण्डरीक के श्राप से ललित उसी क्षण राक्षस बन गया। उसका मुख अत्यंत
भयंकर, नेत्र सूर्य-चंद्रमा की तरह प्रदीप्त और मुख से अग्नि निकलने लगी।
उसकी नाक पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने
लगी। सिर के बाल पर्वतों पर खड़े वृक्षों के समान लगने लगे और भुजाएं
अत्यंत लंबी हो गईं। कुल मिलाकर उसका शरीर आठ योजन के विस्तार में हो गया।
इस प्रकार राक्षस होकर वह अनेक प्रकार के दु:ख भोगने लगा। एक बार ललिता अपने पति के पीछे घूमती-घूमती विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँच
गई, जहां पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। ललिता शीघ्र ही श्रृंगी ऋषि के आश्रम
में गई और वहां जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी। उसे देखकर श्रृंगी
ऋषि बोले – हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किसलिए आई हो? ललिता बोली कि हे
मुने! मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से राक्षस हो
गया है। इसी शोक से मैं संतप्त हूं। उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। मुनि के मुख्य से ऐसे वचन सुनकर ललिता ने चैत्र शुक्ल एकादशी आने पर
उसका व्रत किया और द्वादशी को ब्राह्मणों के सामने अपने व्रत का फल अपने
पति को देती हुई भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करने लगी – हे प्रभो! मैंने
जो यह व्रत किया है, इसका फल मेरे पतिदेव को प्राप्त हो जाए जिससे वह
राक्षस योनि से मुक्त हो जाए। एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि
से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप में आ गया। फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों
से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करने लगा। उसके पश्चात वे दोनों विमान
में बैठकर स्वर्गलोक चले गए। वशिष्ठ मुनि कहने लगे कि हे राजन! इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त
पाप नष्ट हो जाते हैं व राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके
समान अन्य कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढऩे या सुनने से वाजपेय
यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
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